Tuesday, November 29, 2022

मज़बूरी का नाम...

चतरई

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी क्यों ?

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी क्यों?
हमारे देश में खासकर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के पढ़े लिखे और सभ्य कहे जाने वाले हाईप्रोफाइल लोगों से लेकर, देहातों तक, किशोर विद्यार्थियों व शिक्षकों के मुंह से भी एक जुमला सुना जा सकता है। बड़ा ही प्रचलित भारतीय मुहाबरा बन गया है, यह। मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी। आम तौर पर जब कोई व्यक्ति किसी के प्रभाव के आगे, बल या दबाव के चलते बेबस हो जाता है। जब प्रतिकार करने की कोई गुंज़ाइश न रहे तो समझौता करते हुए एक आम हिन्दुस्तानी कह देता है कि 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी।' बड़ा अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी को फटकार लगाता है, तो कर्मचारी क्या कर सकता है? मज़बूरी का नाम.......। ट्रेन लेट है तो सवारी क्या कर सकती है? बिजली चली गई, बाबू रिश्वत मांगता है, नेताजी सुनते नहीं, शहर में गंदगी है, स्कूल वाले मनमानी फीस बसूलते हैं, अस्पताल में डाक्टर ही नहीं है, बेटे ने घर से बेघर कर दिया। ऐसी हजारों हिन्दुस्तानी समस्याओं के आगे वेवश लोगों के लिए सबसे आसान निदान ह 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी'। सचमुच ही यदि आप मज़बूर हैं, तो भला क्या कर सकते हैं, जो मज़बूर नहीं है वो अपनी परेशानी से मुक्ति के ढेरों उपाय करेगा। पर जो मज़बूर है वो क्या करेगा। उसके लिए तो बस मज़बूरी का नाम.......।

  मेंने देखा कि एक ठेकेदार सप्ताहांत पर मज़दूरों को उनकी मज़दूरी का भुगतान कर रहा था, वह मज़दूरों को एक सप्ताह में बनी मज़दूरी के कुल रूपयों से कुछ कटौती कर भुगतान कर रहा था। मज़दूर उदास मन से रूपए लेते जा रहे थे। हफते भर देखे सपनों को पूरा कर पाने में लाचार मज़दूर भी वही कह रहे थे, जो आमोख़ास हिन्दुस्तानी कहता है 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी।' परन्तु यहां वास्तविकता तो पूरी ही विपरीत है, तात्कालिक रूप से मज़दूर लाचार है, बेवस है, पर सचमुच वह मज़बूर नहीं है। मज़बूर तो ठेकेदार है, तभी तो वो पूरी मज़दूरी का भुगतान नहीं कर रहा। ठेकेदार ही मज़बूर है, यदि उसने मजदूर का पूरा भुगतान कर दिया तो उसके यहां काम करने वाला मज़दूर अगले सप्ताह दूसरी जग़ह जा सकता है। नुकसान के डर से ठेकेदार उसके कुछ पैसे काट लेता है, और मजदूर को मजबूर बना देता है, जबकि मज़बूर ठेकेदार ही है। लेकिन व्यवस्था ने ऐसा आवरण तैयार कर रखा है कि मज़दूर, सिर्फ मज़बूर दिखता ही नहीं है, वह तो अपने आपको बेहद मज़बूर मानता भी है। मज़बूरी को आत्मसात कर अपने शोषण के लिए मज़बूर अंतस तैयार कर लिया है मज़दूर ने।
  अपनी लाचारी और बेवसी को कमज़ोरी न मानने के लिए महात्मा गांधी से अच्छा और किसका नाम हो सकता है। जब महात्मा गांधी मज़बूर है, तो हमें मज़बूर होने में क्या शर्मिन्दगी? कुल मिलाकर लाचारी, बेबसी, के लिए सबसे उपयुक्त और प्रचलित शीर्षक बन गया है 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी'। मज़बूरी का नाम....... कहकर आप आसानी से संघर्ष से बच सकते हैं, यथास्थिति में रह सकते हैं। कोई भूले से यदि प्रश्र उठाए तो सीधा उत्तर है, मज़बूरी का नाम.......। कुल मिलाकर मज़बूरों का प्रतीक बना लिया हमने महात्मा गांधी को।  मैं भी यही मानता हूं कि महात्मा गांधी सचमुच मज़बूरों के लिये ही हैं।
 पर गांधी उन मज़बूरों के लिए कतई नहीं हैं, जो गांधी के नाम का मिथ्या सहारा लेकर यथास्थिति में रहना चाहते हैं। संघर्ष से बचना चाहते हैं। बल्कि गांधी और उनके सिद्धांत उन मज़बूरों के लिए हैं, जो अपनेे ऊपर होने वाले अत्याचारों और शोषण से निज़ात पाने के लिए अन्य सारे उपाय कर चुके हों, इसके बाद भी वे अपनी बेहतरी के लिए अंतिम प्रयोग करने के लिए तैयार हों। ऐसे मज़बूर लोगों के लिए ब्रह्मास्त्र और सर्वाधिक सिद्ध मंत्र है, 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी।Ó यह सत्य है कि मज़बूरों के लिए सिर्फ एक ही नाम है 'महात्मा गांधी'। लेकिन उस संदर्भ में नहीं, जिसके लिए यह मुहाबरा आम हिन्दुस्तानियों में प्रचलित है।
 आज की दुनियां के लिए तो गांधी ही अंतिम रास्ता है, समस्या का अंतिम समाधान है 'महात्मा गांधीÓ, जिसके प्रयोग पर असफलता की भी कोई गुंज़ाइश ही नहीं है। नफरत का पूरी तरह से अंत करने वाला दर्शन है महात्मा गांधी। जहां सारे अस्त्र-शस्त्र विफल हो जाते हैं, वहां ब्रह्मास्त्र हैं, रोशनी की अंतिम उम्मीद है महात्मा गांधी। अहिंसा के सिद्धांत के आगे बड़े-बड़े योद्धा नतमस्तक हुए हैं, और होते रहेंगे। तभी तो सारी दुनियां के लिए एक आदर्श है महात्मा गांधी।
    अलवर्ट आंइस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक ने यूं ही नहीं कह दिया था कि आने वाले लोग यकीन नहीं करेंगे कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला सचमुच ही इस ज़मीन पर पैदा हुआ था। विश्व की श्रेष्ठतम् संस्थाओं नें जिसे बीती शताब्दी का महान नेता माना, वो भी सारी दुनियां के संदर्भ में। दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति यूं ही नहीं कह देता कि 'मैं आज जो कुछ हूं महात्मा गांधी की बज़ह से हूं। और आज के अमेरिका की जड़ें महात्मा गांधी के भारत और भारतीय स्वतंत्रता के अहिंसा आंदोलन में हैं, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया।' अहिंसा की नीति के ज़रिए विश्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने में महात्मा गांधी के योगदान को सराहने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2007 से महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित किया, इस सिलसिले में भारत द्वारा रखे प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र महासभा के कुल 191 सदस्य देशों में से 140 से भी अधिक देशों ने सह-प्रायोजित किया था। इनमें अ$फगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान जैसे भारत के पड़ोसी देशों के अलावा अ$फरीका और अमरीका महाद्वीप के कई देश शामिल थे। मौज़ूदा व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को मानते हुए बिना मतदान के ही यह प्रस्ताव पास हुआ था। और अब सारी दुनिया गांधी के जन्म दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है। जऱा सोचिये कि सारी दुनिया ने गांधी को किस रूप में अपनाया और हम कहते हैं मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी।
   इससे ज्य़ादा दुर्भाग्य और क्या होगा? यह मुहाबरा जिस संदर्भ में प्रचलित हुआ, उससे तो यही सिद्ध होता है, कि अब तक गांधीजी को आमजन तक सही रूप में नहीं पहुंचा सके। किस-किसको पता है कि, मोहनदास करमचंद गांधी ने कब और क्यों कहा कि कोई एक गाल पर चांटा मारे तो उसके आगे अपना दूसरा गाल कर दो, फिर भी छोटे-छोटे बच्चों को तक को इसे मुहाबरे के रूप में प्रयोग करते देखा जा सकता है। ये कौन सिखाता है, कहां से चल जाता है? जबकि सारी दुनिया यह मानती है कि गांधी अंतिम समाधान हैं। किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं लिखा कि गांधी ने समस्याऐं पैदा की। कम से कम भारत में तो अब तक किसी अध्यापक को यह पाठ््यक्रम नहीं सोंपा गया होगा, जिसकी सहायता से विद्यार्थिओं को यह सिखाया जा सके कि देश की अधिकांश समस्याओं की जड़ महात्मा गांधी हैं। फिर मेरे देश का नौज़वान जो कालेज से ग्रेजुएट होकर निकलता है, और अच्छे सूट-बूट पहनना सीख जाता है, वह किस जानकारी और शोध के आधार पर सारी दुनिया के आदर्श महात्मा गांधी को गाली देने लगता है? गांधी गलत थे। यह कौन अध्यापक सिखा देते हैं? आग्रह इतना ही है कि हमारे राष्ट्रपिता के बारे में कोई भी टिप्पणी तभी करें, जबकि संदर्भित बिषय पर आपकी पक्की जानकारी हो और ऐसा ही आग्रह अन्य लोगों से करें।
 साथ ही बहुत अधिक दु:ख होता है, जब देश का नौज़वान और वह भी शिक्षित नौज़वान जिसके ऊपर दूसरों को सिखाने की जि़म्मेदारी हो, खुद शोषण और ग़ैरबराबरी सहता रहता है, और संघर्ष से बचने के लिए कह देता है, मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी। अब तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि सारी दुनियां में भारत के सम्मान के प्रमुख कारकों (अनेकता में एकता, विश्व का सबसे बड़ा सफल लोकतंत्र, धर्म निरपेक्ष राज्य व्यवस्था) में एक प्रमुख कारक है-मोहनदास करमचंद गांधी और उनका जीवन दर्शन।
दीपक तिवारी
अध्यापक
मो. 9425150255

Thursday, November 24, 2022

गालियां मुझे अतिप्रिय हैं💐💐💐

चतरई💐💐💐

व्यापार मेें तय होती हैं, सारी कीमतें,
क्या लेना है, तो क्या देना है।
और देने के बदले, क्या लेना है?
कितना कुछ कम ज्यादा हो सकता है, 
यह भी लगभग निष्चित ही है।

निश्चित हैं, सारी सीमाऐं रिश्तों की भी
और मित्रता की भी, कुछ सीमाऐं हैं?
हमराह और हमराज़ होने की
अपेक्षाओं और उम्मीदों के बीच।

प्रेम भी बदले में, आस लगाता है प्रेम की,
मैंने किसी भी नफरत करने वाले को,
कभी प्रेम से नहीं देखा।

पर घर उम्मीद है, एक विस्तार की,
अनन्त विस्तार की, 
पर वो भी चार दीवारों के घिरा हुआ विस्तार?
विस्तार की सीमाऐं हैं,
बिल्कुल मेरे धर्म और देश की तरह।

क्या होना है, कितना होना है?
कितना बोलना-सुनना है,
यह भी तय है, कीमतों की तरह।

लेकिन गालियां कितनी अलग हैं?
देना सब चाहते हैं,
लेना कोई नहीं।

और सच,
सच भी अजीब ही है,
बोलना सब चाहते हैं,
पर सच सुनने की बारी आते ही,
असहज हो जाते हैं, मुश्किल में आ जाते हैं,
नहीं सुनना चाहते, सिर्फ बोलना चाहते हैं सच,
बिल्कुल गालियों की तरह।

इसलिए व्यापार यदि समीकरण है,
तो सच बिल्कुल बराबर है, गालियों के।

गालियाँ मुझे अतिप्रिय हैं।
किन्तु 100 तक ही?

दीपक देहाती


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Sunday, November 13, 2022

अटलजी की श्रद्धांजली, पंडित नेहरू को...

अटलजी के नेहरू

 भारत के पहले औऱ लगातार 17 वर्षो तक प्रधानमंत्री रहे पंडित #जवाहरलाल जी, देश की आज़ादी के आंदोलन में कुल 10 किस्तों में 3259 दिन यानि पौने नौ वर्षों से अधिक समय जेल में रहे।

10 बड़ी किताबे भी लिखी, जिनमे भारत एक खोज #discoveryofindia,#glimpsesofworldhistory, #beforefreedom इत्यादि शामिल हैं।

ये भी ग़ज़ब की बात है कि इस देश में नेहरूजी के बारे में जानकारी कम और भ्रांतियां अधिक है।

नेहरूजी का आजीवन धुर विरोध करने वाले और भारतीय राजनीति के अद्वितीय महान नेता पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में नेहरूजी को विनम्र श्रद्धांजली।

अध्यक्ष महोदय,

एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।

मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्ना है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे; वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे।

वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।

मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे।

महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है। हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया, अनुयायी रह गए। सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूँढना है।

यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे। संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा।

वह व्यक्तित्व, वह ज़िंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

शत शत नमन

दीपक देहाती, पमारिया से...

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Sunday, November 6, 2022

घाघ...

एक पाख दो ग्रहणा राजा मरे या सेना। -महाकवि घाघ


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Friday, November 4, 2022

अर्थ ही धन है?

अर्थ ही धन है?
या धन का भी कोई अर्थ है?

कुछ लोग कहते हैं कि व्यर्थ है धन,
पर लगता है कि, सबसे समर्थ है धन।

शुभकामनाएं धनतेरस की
धन्वंतरियों को कुबेर बनाते इस युग में। 
हमारा धन तो, अतिदुर्दिनो में है, 
चीतों के इस भागते युग में भी ।

पूजिए अपने धन को, 
जो छुपा कर रखा जाता है। 
हमारा धन तो दिखाया जाता है।
यकीन मानिए वह चलता-फिरता,
खाता-पीता भी है, मल मूत्र भी देता है।
हंसता है, रोता है, बोलता है, 
भाषा समझना होती है।

जीवन में पहली बार जिसे,
"धन" सुना-देखा, कहा-जाना,
वो ही पूजा जाता है,
आज भी दिवाली में।

रुपया, चांदी, सोना, हर-बखर,
सब कुछ, यहां तक कि अन्न देवता को भी,
धन नहीं कहा गया।

सिर्फ वही धन था, 
जो अब आवारा के प्रयत्य से,
परिभाषित हो गया है।

बाकी कुछ और होता होगा,
धन तो मवेशी ही थी किसान की।

संज्ञा पहले बनी या परिभाषा,
पूछना भाष्यकारों से।
आप तो जानो
संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानी गईं,
धन की कुछ समावेशी परिभाषाएं।
आप भी जानिये, धन को।
-चालाक
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Thursday, November 3, 2022

वृंदा से तुलसी बनने की पौराणिक कथा-

"तुलसी वृक्ष ना जानिये।
गाय ना जानिये ढोर।
गुरू मनुज ना जानिये।
ये तीनों नन्दकिशोर।
   अर्थात-
तुलसी को कभी पेड़ ना समझें
गाय को पशु समझने की गलती ना करें और
गुरू को कोई साधारण मनुष्य समझने की भूल ना करें,
क्योंकि ये तीनों ही साक्षात भगवान रूप हैं"।
गोश्वामी जी को प्रणाम।

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक। 
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पर भगवान विष्णु के शालीग्राम रूप और माता तुलसी का विवाह किया जाता है। कई लोग द्वादशी तिथि पर भी तुलसी विवाह करते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को अतिप्रिय है। तुलसी के बिना भगवान विष्णु भोग स्वीकार नहीं करते हैं। 



💐सन्दर्भ कथा
भागवत पुराण के अनुसार-

एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।

दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।

भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गईं।
देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।
इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा।

ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्छित हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।
भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।

इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला होने का श्राप दे दिया तथा स्वयं सती हो गईं। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा।’
जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है। सती वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।

आज ही देव प्रबोधनी, तुलसी विवाह एकादशी है। 

पुनः शुभकामनाएं...

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Wednesday, November 2, 2022

कबाड़ा

महंगे सस्ते की बात कहाँ होती है,
अच्छा तो यही है,
कि खरीदा जा रहा है, 
अब भी कबाड़ा।
यदि खरीदने वाले भी,
इसे कबाड़ा मान लेते,
तो आपका घर भर गया होता,
इसी कबाड़े से।
अब उन सब का घर चल रहा है, 
आपके कबाड़े से।
अब तो कबाड़े से कितने अचरज हो रहे हैं
कहीं बिजली, कहीं खाद, कई ईंधन हो रहे हैं।
और भी बहुत कुछ, मतलब बहुत ही ज़्यादा कुछ होने लगा कबाड़े से।
पता करना।
मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा, 
कि क्या करें।
अब कबाड़ा बेंच दें,
या कबाड़ा कर लें।     -चालाक




आदतें...

नहीं मिलेंगे
इंजेक्शन बाजार में-आदतों के।

यदि विषाणु हैं, 
तो लगाना पड़ेगी वैक्सीन, 
आदतों की ही।
रोग हैं-तो उपचार भी,
सिर्फ,
आदतें ही हैं-आदतों का।

ये जान लीजिए,
ये बढ़ती हैं गुणोत्तर प्रक्रम में,
अच्छी या बुरी हों,
आपकी आदतें।

बिना प्रयोजन भी,
आप भी परोसते रहते हैं,
हर वक़्त अपनों को,
अपनी-अपनी आदतें।

पढ़ाई नहीं जा सकतीं,
किसी कोचिंग या पाठ्यक्रम से भी।
ये सिखाई भी नहीं जा सकतीं।
सिर्फ डाली जा सकती हैं-आदतें।

इनकी सिलाई या रफू भी नहीं होगा,
सिर्फ बदली जा सकती हैं,
नई आदतों से ही।

खंडित हो जाएंगे विराट संकल्प भी,
श्रेष्ठ-व्रतों के।
यदि न बदली गईं कुछ आदतें।

आदतें सिर्फ खाने-पीने, 
सोने-जागने की ही नहीं होतीं।
प्राणों के रहने तक,
हरक्षण ज़िंदा रहेंगी
आदतें।

आपके व्यक्तित्व का,
पूरा अक्स होती हैं,
आपकी आदतें।

कोई चतरई नहीं है,
इन्हे मार डालने की,
यह आइंस्टीन की ऊर्जा की ही तरह हैं।

सिर्फ अदला-बदली हो सकती हैं,
आदतें...
आदतों से ही।
-चालाक


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Tuesday, November 1, 2022

बेचारे संजय...

बेचारे संजय...

पाषाण कर लिया होगा,
अपना कलेजा।
जब,
सुनाया होगा महाभारत,
धृतराष्ट्र को।

महान साम्राज्य,
हस्तिनापुर के महाराजा को,
दिखाया होगा
अपने ही,
अति बल औऱ वैभवशाली
सौ पुत्रों सहित,
अपने ही अनगिनत,
रिश्तों के सशरीर मरने का चल-चित्र।

आज के संजय भी कर रहे हैं,
यही सब चतरई,
नीति से हो,
या नियति से।।
-चालाक

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बेचारे धृतराष्ट्र...😎😎😎

बेचारे #धृतराष्ट्र...

धृतराष्ट्र अंधे न होते तो?
तो क्या होता?
क्या-होता,
और क्या-क्या न होता।

न होता #महाभारत?

फिर क्या होता?

क्या भीष्म, द्रोण, धर्मराज, अर्जुन, 
भीम, कर्ण, दुःशासन, एक्लव्य....
कौन होते,
और कौन-कौन न होते?

वो तो, यूँ ही हो जाते,
महाराज,
हस्तिनापुर के
ज्येष्ठ पुत्र तो वे ही थे। 
बेचारे धृतराष्ट्र... बस अंधे न होते।

और न होती #गीता, #भागवत।
न जाने कितने,
#पुराण, #गाथायें और #शास्त्र भी न होते।
बेचारे धृतराष्ट्र... बस अंधे न होते।

पांडु भी न हो पाते सम्राट,
बेचारे धृतराष्ट्र बस... अंधे न होते।

किन्तु,
हो सकती थी,
एक 'चतरई'।

यदि पांडु ने जान ली होती,
महान #रामायण,
तो कुछ भी न होता।

वे तो सिर्फ अंधे थे,
पर घर में तो थे।

#राम तो वन में थे।

#भरत महान हो गए,
और हम सब भारतीय।

राज सिंघासन पर रख लीं,
अपने ज्येष्ठ की खडाऊं।
और बने रहे राजा।

पाण्डु भी बने रहते राजा,
और बना देते,
अपने ज्येष्ठ को महाराजा।
पाण्डु भी बन सकते थे आंखें,
अपने बड़े भाई की, 
खड़ाऊयें अपने माथे से लगाकर,
रख देते वो ही खड़ाउएँ,
हस्तिनापुर की राज सिंघासन पर।

चतरई तो,
खूब सारी,
हम सभी भी,
कर रहे हैं।

सुना रहे हैं, 
मर चुके पितरों को,
#गरुड़-पुराण।

और आपके बच्चे,
आप सरीखे ही अनगिनत पुराण,
देख-सीख रहे हैं,
अपने-अपने,
मोबाइलों पर।

भले आपने न कहा हो ,
अपने बच्चों से,
-कर दूंगा तुझे,
यम को दान।

फिर भी #नचिकेता सा ही,
दूर कर रहे हैं,
और हो भी रहे हैं
अपने ही बच्चों से।
 
अब विज्ञान के चमत्कार,
का निबंध,
नहीं सिखाया जा रहा हिंदी में।
वरना वे भी समझते,
विज्ञान के अभिशापों को।
और समझते कि,
ज्ञान से विज्ञान आया,
विज्ञान से ज्ञान।

फिर से कोई महाभारत न हो,
इसके लिए कर सकते हैं,
अब एक चतरई,
सभी पाण्डु अनुज,
बने रहें राजा, सम्राट, अधिनायक.....
यदि अग्रज धृतराष्ट्र हों तो,
कर लें,
खडाऊं वाली चतरई।

नीति से नियत आई,
या नियत से नीति।

नियति ने, 
धृतराष्ट्र को अंधा बनाया,
तो हमने जाना,
महाभारत और कितने,
शास्त्रों, पुराणों और गाथाओं को।

यदि सौ बलशाली पुत्रों को,
मरता देखते,
अपनी आंखों से,
तो धृतराष्ट्र,
और भी,
और भी बेचारे ही होते।।
 -चालाक

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तमाशा

अब तक रहे आम, 
अब कुछ ख़ासा कर लेते हैं।

चलो चौराहे पर तमाशा कर लेते हैं।

ये बस्ती बड़ी भोली है,
यहां के लोग बिन जाने-समझे ही,
आशा कर लेते हैं।
और कल का भरोसा भी क्या,
अभी सब नींद में हैं।

गरीबों को सोना मुनासिब नहीं कहकर,
हम यहां सोने को कांसा कर लेते हैं।
चलो चौराहे पर तमाशा कर लेते हैं।

उस दिन की फिक्र हम भी क्यों करें,
जब लुटे लोग निराशा कर लेते हैं।
पाना हमें भी दफीना ही है,
इसलिए अब खोदने का नाम, तराशा़ कर लेते हैं।
चलो चौराहे पर तमाशा कर लेते हैं।

चांद दूर है तुमसे, ये सच क्यों कहें
खेल मां यशोदा का कर लेते हैं।
चलो चौराहे पर तमाशा कर लेते हैं।

पोल खुलेगी तो, ये भी क्या कर लेंगे,
अब तक लोग, ठगे जाने पर क्या कर लेते हैं।।

मौका मिला है, चलो कुछ ऐसा कर लेतेे हैं।
लाठी उठाए बिना ही, आज़ नाग दमन कर लेते हैं।
एक बार फिर कर लेते हैं...............
चलो चौराहे पर तमाशा कर लेते हैं?
-चालाक
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